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मनरेगा में ‘दबाव पत्र’ से फर्जीवाड़े का खतरा बढ़ा: मांग आधारित योजना में अधिकारियों की जल्दबाज़ी पर सवाल

मनरेगा में ‘दबाव पत्र’ से फर्जीवाड़े का खतरा बढ़ा: मांग आधारित योजना में अधिकारियों की जल्दबाज़ी पर सवाल

कवर्धा। मनरेगा के क्रियान्वयन को लेकर जिला कलेक्टर कार्यालय द्वारा जारी कड़े और दबावपूर्ण निर्देशों ने अब योजना की पारदर्शिता पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं। अधिकारियों और फील्ड-स्टाफ पर जारी “सुधारो नहीं तो जवाब दो” प्रकार के पत्रों से यह आशंका गहराती जा रही है कि काम का दबाव बढ़ने पर फर्जी प्रगति रिपोर्ट, कागजी मजदूरी और जल्दबाज़ी में स्वीकृत कार्यों की संभावनाएँ तेज़ हो सकती हैं।

जिला प्रशासन ने कार्यक्रम अधिकारी रमेश कुमार भास्कर, प्रभारी प्रोग्राम अधिकारी दिलीप कुमार साहू, सेव कुमार चंद्रवंशी, बाबूलाल मेहरा, अशोक कुमार झरिया और ता. प्रोग्राम अधिकारी लवकेश मरकाम सहित कई अधिकारियों को एक माह में सुधार के निर्देश जारी किए हैं। आदेश में कहा गया है कि गलत रिपोर्ट, देर से प्रगति भेजना और निर्देशों की अनदेखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।

लेकिन विशेषज्ञों व फील्ड कर्मचारियों का कहना है कि ऐसे दबाव पत्र मनरेगा की मूल संरचना से मेल नहीं खाते ।

‘मांग आधारित योजना’: दबाव में बढ़ सकता है फर्जीवाड़ा

मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) एक मांग आधारित योजना है, जिसमें कार्य तभी शुरू होता है जब मजदूर काम की मांग करते हैं।

कबीरधाम जिले में मजदूरों की वास्तविक काम-मांग जनवरी के बाद बढ़ती है।

नवंबर–दिसंबर के महीनों में ग्रामीण किसान, मजदूर और परिवारजन धान व गन्ना कटाई जैसे कृषि कार्यों में व्यस्त रहते हैं।

ऐसे में यदि अधिकारी किसी भी कीमत पर काम दिखाने का दबाव कर्मचारियों पर बनाते हैं, तो—

कागजों में मजदूरों की फर्जी मांग बनाई जा सकती है ।

कार्य स्थल पर वास्तविक उपस्थिति के बिना कागजी मजदूरी दर्ज हो सकती है।

जल्दबाज़ी में स्वीकृत कार्यों से अनियमितता और भ्रष्टाचार बढ़ सकता है ।

ग्राम पंचायतों में अधूरे काम, बिना निरीक्षण के भुगतान और नियम उल्लंघन की घटनाएँ बढ़ सकती हैं

यही कारण है कि कर्मचारियों का दावा है: “दबाव में काम = गड़बड़ी तय।”

अधिकारियों की निष्क्रियता अपनी जगह, लेकिन फील्ड स्टाफ पर एकतरफा दबाव खतरनाक

मनरेगा से पलायन रोकने, ग्रामीण सड़क-नाली सुधारने और आजीविका बढ़ाने में बड़ा योगदान मिला है।

लेकिन पिछले कुछ समय में रिपोर्टिंग गड़बड़ियों, अधूरे काम, अनुचित ठेकेदारी और ग्राम पंचायत स्तर पर अनियमितताओं की शिकायतें भी सामने आई हैं।

कलेक्टर का सख्त रुख निश्चित रूप से जवाबदेही बढ़ाने वाला है, परंतु

सुधार का दबाव जब फील्ड पर “दबाव” में बदल जाता है, तब यह योजना की विश्वसनीयता को ही नुकसान पहुंचाता है।

ग्राउंड कर्मचारियों का तर्क — “काम की मांग ही नहीं है, तो काम कैसे दिखाएँ ”

स्थानीय कर्मचारियों का कहना है—

मजदूर कटाई के मौसम में काम ही नहीं मांगते

पंचायतें कृषि और त्योहारों के समय कार्य शुरू नहीं करना चाहतीं

ऊपर से आए दबाव आदेशों में “एक माह में सुधार” करना व्यावहारिक नहीं है।

यदि जिम्मेदार अधिकारी वास्तविक परिस्थितियों को समझे बिना केवल कागजी “प्रगति” पर जोर देंगे, तो योजना में कागजी काम और गलत आंकड़े बढ़ेंगे।

 कठोर आदेश जरूरी, लेकिन मांग आधारित व्यवस्था में दबाव उल्टा असर डाल सकता है

मनरेगा की सफलता पारदर्शिता, मांग और जनभागीदारी पर निर्भर करती है।

यदि अधिकारियों पर दबाव बनेगा, तो वही दबाव फील्ड कर्मचारियों से होकर ग्राम पंचायतों तक पहुँचेगा और अंततः—

शुद्ध काम कम, कागजी काम ज्यादा

और फर्जीवाड़े की संभावना सबसे अधिक होगी।

जिला प्रशासन के आदेश ने जहां जवाबदेही तय करने का संदेश दिया है, वहीं यह भी साफ दिखने लगा है कि दबाव आधारित सुधार, मांग आधारित योजना में जोखिम भी बढ़ाता है।

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